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कविता

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कोई उन्नीस,कोई बीस,कोई इनसे ज्यादा निकले ा
> जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले ाा
>
> हर पार्टी शरण दे रही,गुण्डों और बदमाशों को ,
> निर्भय होकर तोड़ रहे सब,जनता के विश्वासों को,
> लाठी,डण्डा खिला रहे ये,बूँद-बूँद के प्यासों को ,
> राजनीति में बना रहे सीढ़ी, जनता की लाशों को,
> वीर-जनी भारती-कोख से,जानें कैसे नाखादा निकले ा
> जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले ाा
>
> खुलेआम लुट रही बेटियाँ,सत्ता की राजधानी में,
> अरमानो की चिता जल रही,लगी आग है पानी में,
> जवानी लगे बीमार पड़ी है,खून बदल गया पानी में,
> देशभक्ति का ढोंग रचाते,क्या दीमक लगा जवानी में,
> मधुवन बना शैतान बसेरा, कैसे कोई राधा निकले ा
> ा
> जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले
> पड़ोसी सीमाएं एक हड़प रहा,
> एक बदला लेने को तड़प रहा,
> एक विदेश-नीति से भड़क रहा,
> एक मित्र ,शत्रु- सा फड़क रहा,
> जिस,जिस को दी गयी मदद,वो सब के सब दादा निकले ा
> जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले ाा
> पड़ोसी देश के आतंकों से,दहशत सी भर जाती है,
> शहर,सड़क और गली-गली तक, लाशों से पट जाती है,
> सरकटी लाश सैनिक की अब, अपने घर में आती है,
बेटे का ऐसा हाल देख,माँ की छाती फट जाती है,
> कैसे बँधे उम्मीद कोई जब, शासक ही प्यादा निकले ा
> जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले ाा
>
> खुलेआम नीलामी में तब,सब के सब मुस्काते थे,
> जब बिका खिलाड़ी पैसे पर,तब ताली बहुत बजाते थे,
> एक जमाना था बिकने के,नाम से सब घबराते थे,
> किसी खेल में नहीं सुना कि,कभी नर्तकी नचाते थे,
> सारे फैशन राजाओं के,सभी चोर शहजादा निकले ा
> जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले ाा
>
> दर्द तुम्हें क्या मालूम होगा,तुम सत्ता के भूखे हो,
> पूछो आदिवासियों से जिनके,गाँव-गाँव तुम फूके हो,
> पूछो दलित जातियों से जिनके हक,सदियों से लूटे हो,
> पूछो कश्मीरी पंडितों से जिनकी,थाली तक में थूके हो,
> आज पड़ा है थूक जो खुद पर,लड़ने को आमादा निकले ा
> जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले ाा
>
> कोई उन्नीस कोई बीस,कोई इनसे ज्यादा निकले ा
> जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले ाा
> -मिलन चौरसिया ‘मिलन’
>
> (२)
> लगता कुछ भी ठीक नहीं है.
>
> आपस में ही टांग खिचाई,
> ईर्ष्य़ा, निंदा , मार पीटाई,
> मद में है ऐंठा हर कोई ,
> न्यायी बन बैठा अन्यायी,
> चलता कुछ भी ठीक नहीं है .
> लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
>
> हर तरफ़ है भ्रष्टाचार,
> शासक पंगु, जनता लाचार ,
> बढ़ता आतंक, अत्याचार ,
> उसपर मंहगाई की मार ,
> कहना कुछ भी ठीक नहीं है .
> लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
>
> नौनिहाल बीमार पड़े हैं ,
> बुजुर्ग यहाँ लाचार पड़े हैं ,
> नौजवान बेकार पड़े हैं ,
> सहमे से बेगार खड़े हैं ,
> बाक़ी भी उम्मीद नहीं है .
> लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
>
> बिखरे बिखरे से हैं बाल ,
> सिकुड़ चुकी सब उसकी खाल ,
> मां की ममता है बेहाल ,
> ना जाने कब लौटे लाल ,
> हवा का रुख भी ठीक नहीं है .
> लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
>
> पशु आचरण में इन्सान ,
> श्वेत आवरण में हैवान ,
> बहू बेटियाँ हैं परेशान ,
> हक्की बक्की और हैरान ,
> इतना दुःख भी ठीक नहीं है .
> लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
>
> हर घर में ही रार बढ़ी है ,
> निराशा अब द्वार खड़ी है ,
> नैतिकता बाज़ार पड़ी है ,
> चिंता ही हर बार बढ़ी है ,
> रहना चुप भी ठीक नहीं है .
> लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
>
> -मिलन चौरसिया ‘मिलन’
>
> (३)
> जी चाहता है
>
> माहो अंजुम तेरी आगोश में,
> सर छुपाने को जी चाहता है ा
>
> ऐ जमाल-ओ-परी तेरे आतिस-ए-हुस्न में,
> जल जाने को जी चाहता है ा
>
> ऐ तकद्दुस माहेलका तुझसे,
> वस्ले शीरीं को जी चाहता है ा
>
> छुप जाऊँ तेरी पलकों में काजल के जैसे,
> ऐ मेरी सनम ऐसा जी चाहता है ा
>
> बनाऊँ तुझे अपने सपनों की मलिका,
> ऐ जाने जहाँ मेरा जी चाहता है ा
>
> मैं थिरकता रहूँ ले तुझे उम्र भर,
> ऐ जाने वफा ऐसा जी चाहता है ा
>
> उठाऊँ तेरे सारे नाज वो नखरे,
> मैं सारी उमर ऐसा जी चाहता है ा
>
> ‘मिलन’ हो तो सिर्फ हो साथ तेरा,
> ऐ मेरी नजम ऐसी जी चाहता है ा
>
> –मिलन चौरसिया ‘मिलन’,मऊ —
>

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