कविता
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ग़ज़ल
पहाड़ों से कई पत्थर लुढ़क कर टूट जाते हैं,
निकाले जो गए घर से वो अक्सर टूट जाते हैं।
हमेशा जो रहे दो जिस्म और इक जान बनकर के,
ज़माने में अधिकतर वो बिछड़कर टूट जाते हैं।
ज़माने की हवा तूफ़ान जैसी हो तो झुक जाना,
खड़े रहते शज़र जो भी अकड़कर टूट जाते हैं।
नहीं गिरने कभी देना ज़मीं पर अश्क़ के मोती,
है कीमत जिनकी ज्यादा वो ही गौहर टूट जाते हैं।
जरूरी है कि दिल के शीश महलों में कोई तो हो,
मकां खाली जो रहते हैं चटक कर टूट जाते हैं।
मुहाफ़िज़ हों छुपे तो ही हिफ़ाज़त होती है बेहतर,
निगाहों में जो आ जाते वो बंकर टूट जाते हैं।
बहुत नाज़ुक से रिश्तों से बनी है ये ‘मिलन’ दुनिया,
जिन्हें दिल से निभाने में कई घर टूट जाते हैं।
——-‘मिलन’।
शज़र-पेड़,अश्क़-आंसू,
गौहर-मोती,मुहाफ़िज़-रक्षक,
हिफाज़त-रक्षा,
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